मुद्दा- महिलाओं में जागरूकता

कमलेश जैन
पिछले 30-35 वर्षो में जैसे-जैसे स्त्रियों में जागरूकता आई है, नये कानूनों के प्रति वैसे-वैसे उनके अंदर सदियों से दबे-कुचले होने, दोयम दर्जे की नागरिक होने का अहसास गहराया है। पहले वे इसे अपनी नियति मानती थीं, पर अब अधिकार। यह अधिकार खासकर शहरी, शिक्षित स्त्रियों ने समझा है। वे इस अधिकार को अब छीन कर, दूसरे पक्ष को कुचल कर, नेस्तनाबूद करना चाहती हैं। एक हिंसक प्रवृत्ति उनमें जाग गई है। यह घातक है समाज-देश के प्रति। वे जगें अच्छा है, अपना अधिकार भी पाएं पर दूसरे पक्ष को नष्ट करके यह अच्छा नहीं है। इसमें वे खुद भी कहीं की नहीं रहतीं। उनका भी परिवार नष्ट होता है। बच्चे तितर-बितर हो जाते हैं।

एक और बात भी है। वे ऐसा इसलिए करती हैं कि  अकेली भी रहें तो तगड़ी एलिमनी या मेंटेंनेंस लेकर, बिना काम किए अच्छा जीवन गुजार सकें। इस पूरे काम में उनके माता-पिता, भाई-बहन भी शामिल हो जाते हैं। वे उन्हें लडऩे-झगडऩे, अलग होने, बच्चा लेकर मायके बैठ जाने को प्रेरित करते हैं। ऐसे में उन्हें सास-ससुर, देवर-ननद के लिए कुछ भी करना शुरू से बोझ लगता है। ससुराल जाते ही उनकी रट लग जाती है अलग रहो, मां-बाप को छोड़ो, मेरे घर के पास रहो या वहीं रहो। मेरे मां-बाप की वैसी सेवा करो जैसे अपने मां-बाप की करते हो। वे भी तुम्हारे मां-बाप ही हैं आदि-आदि। आज असंतुष्ट जोड़े लाखों में हैं।

शुरू-शुरू में लडक़ी ससुराल वालों पर दहेज का, भरण-पोषण के अधिकार का, घरेलू हिंसा का, तलाक का अलग-अलग मुकदमा, चार अलग-अलग राज्यों में करती तो विभिन्न तारीखों पर पति हमेशा इस राज्य से उस राज्य, नौकरी छोड़ भागते रहने को मजबूर हो जाता। माता-पिता को दुखी देखते, 498ए आईपीसी में पूरे परिवार को, नाते-रिश्तेदारों को जेल जाते देख हताशा में वह आत्महत्या भी कर लेता था। पति बचाओ आंदोलन दूर-दूर तक फैलने लगे। वे खुले में अपना ऑफिस भी नहीं चला पाते थे। यह उनके लिए शर्म भरी बात थी कि पत्नी से पीडि़त हैं। ऐसे वकील भी शर्माते थे, यहां तक कि न्यायालय पूरी तरह से वधुओं के पक्षधर लगते थे।

धीरे-धीरे अदालतों की भी आंखें खुलने लगी हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में देखा है कि स्त्रियों ने एक ही केस के 4-5 टुकड़े कर देश के 4-5 भागों में जाकर एक-एक केस करना शुरू किया है। पति चारों तरफ भागता हुआ, अपनी नौकरी, मानसिक शांति खोकर, परिवार को दुखी कर, हताश हो, 15-20 वर्षो में लुटा-पिटा सारी शर्ते मान नष्ट हो जाता है। अब सर्वोच्च न्यायालय कहता है छह वर्ष होते-होते सर्वोच्च न्यायालय आओ और एलिमनी तलाक यहीं पाकर सारे झंझटों से मुक्ति पाओ। पर हैरानी की बात है कि वह ऐसा नहीं कह रहा कि एक ही मुकदमे में सारी बातें एक जगह कह कर सारे झगड़ों से मुक्त हो जाओ।

हाल का सर्वे कहता है-पिछले तीन सालों में देश भर में कार्यरत परिवार अदालतों में सवा तीन लाख से अधिक मुकदमे हुए हैं। यह खुलासा केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय के आंकड़ों से हुआ है। इसकी वजह पति-पत्नी के बीच अहं (इगो) बताया जाता है। हम इसी बात से संतोष किए जा रहे हैं कि विवाद बढ़े तो पर सबसे कम तलाक भारत में होते हैं। देश भर में 812 परिवार अदालत कार्यरत हैं जहां 11 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। परिवार मामलों में विभिन्न तरीकों के केस का अर्थ है-घरेलू हिंसा, दहेज उत्पीडऩ, तलाक, बच्चों की कस्टडी, दांपत्य अधिकारों की पुनस्र्थापना, किसी भी व्यक्ति की वैवाहिक स्थिति की घोषणा, वैवाहिक संपत्ति का मामला, गुजारा भत्ता, पति-पत्नी में विवाद पर बच्चों से मिलने का अधिकार, बच्चों का संरक्षक होने का मामला आदि।

बीते तीन वर्षो में दाखिल घरेलू विवाद हैं-2021 में 4,97,447; 2022 में 7,27,587; 2023 में 8,25,502। बीते तीन वर्षो में निपटाए गए विवाद-2021 में 5,31,506; 2022 में 7,44,700 और 2023 में 8,27,000। ऐसा होने का मुख्य कारण है लड़कियों का ऐसे घर में विवाह करना जहां इकलौता लडक़ा हो, अमीर हो, अच्छी जॉब में हो, माता-पिता वृद्ध हों। ऐसे घर में विवाह करने के बाद लडक़ी के माता-पिता लडक़ी को ट्रेनिंग देते हैं-छोटी-छोटी बात पर किच-किच करो, अलग होने की जिद करो, चार-पांच केस करो, जहां जाओ वहां एक केस अलग-अलग राज्य में, हो सके तो एक बच्चा पैदा करो, प्रेग्नेंट होते ही मायके चली आओ, आते ही बच्चे और अपना मासिक भत्ता मांगो, हम साथ हैं। जो लडक़ी बचपन से मायके में है, उसे वहां का परिवेश जाना-पहचाना लगता है, मोटे माल, संपत्ति की आशा में अब उसे वीआईपी ट्रीटमेंट दिया जाता है मायके में। पर वह लडक़ी अपना भविष्य, अपने बच्चे का भविष्य नहीं सोचती। आसान जिंदगी की आशा में एक वीरान जिंदगी उसका आसरा देखती होती है। ऐसे में लड़कियां सोचें, सावधानी से आगे बढ़ें, केस करना है तो आपसी सहमति से तलाक लें, और जल्द अलग हो जाएं।