झील नहीं आंसुओं का सैलाब है ये…..

विस्थापन की पीड़ा क्या होती है यह टिहरी बांध विस्थापितों से ज्यादा कौन समझ सकता है। विकास के नाम पर उनके त्याग को कोई नहीं समझता। अपने पुरखों की विरासत को एक विशालकाय झील में डूबते हुए उन्होंने देखा। न जाने कितनी यादें आज उस विशालकाय टिहरी झील में तैर रही हैं। विस्थापितों के आंसुओं को पोंछने वाला कोई नहीं है। विस्थापितों की पीड़ा को समय -समय पर कई पत्रकारों /कवियों/लेखकों ने अपने अपने-अपने ढंग से उठाने की कोशिश की। जाने-माने साहित्यकार पूर्व विधायक विद्यासागर नौटियाल का एक लेख जिसमें उन्होंने कहा था कि खैट पर्वत की आक्षरी टिहरी को हर के ले गई। जाने-माने कवि धर्मानंद कोठारी जी ने टिहरी डैम पर एक गढ़वाली में कविता लिखी।
टिहरी कू कनु डाम बणीगे।

सरै देश पर डाम पड़ीगे।।
नटराज भितर छ डिस्को होणु
टौप टेरिस मां दारु पियेणी
विस्थापितों की क्वी नि सोचणु
तौंकि अर्जी क्वी नि बांचणु……
कै कै तैं कुछ भी नि मिली
कैकू पेट अघाणू ह्वएगी।
समधी -समधा डाम बणौना
जीजा -साली काम रुकौंणा।

इस तरह कई लोगों ने अपनी भावनाओं को प्रकट किया
पर्यटकों के लिए टिहरी झील आकर्षण का केंद्र हो सकता है सरकार टिहरी झील को सबसे बड़ा वाटर हब बनाने जा रही है। लेकिन विस्थापित आज भी उस गहरी झील में अपनी यादों में खोये‌ हुए हैं। विस्थापितों की पीड़ा को जानी मानी कवित्री नैना कंसवाल ने इस कविता के माध्यम से प्रकट किया।

झील नहीं आंसुओं का सैलाब है ये,
विस्थापन की पीड़ा इसमें,
हजारों का विलाप है ये।
आज बड़े शौक से लोग
अठखेलियां लेते हैं जिसमें,
जानते नहीं कितनों के दर्द ,
कितनों की पीड़ा छिपी है उसमें।
बच्चा, बूढा, जवान हर किसी का,
है बलिदान इसमें
बचपन खेला जवानी बीती हर खुशी थी उस आंगन में।
विकास के लिए हर किसी ने अपने अरमानों का त्याग दिया,
खेत- खलिहान छोड़े ,रोए बिलखे फिर चुपके से विस्तीर्ण किया।
फिर कहते हैं बांध बनाने वाले हमने टिहरी बांध निर्माण किया,
क्या जानते नहीं हैं वो टिहरी वासियों ने अपने सपने ,अपने अरमान डूबोकर कितना उसमें योगदान दिया।
( नैना कंसवाल)

कविता के माध्यम से उन्होंने विस्थापितों की पीड़ा को उजागर किया।